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दिल से अमीर | Dil se amir

silhouette of man carrying plow while holding the rope of water buffalo walking on grass field

Photo by Archie Binamira on Pexels.com

हम अमीर और गरीब की परिभाषा करते है लेकिन वास्तव में अमीर कौन है और गरीब कौन ?

फ़रवरी माह की घटना है। इंदौर के एक बड़े उद्योगपति को निवेश के लिए कृषि भूमि लेना थी, सो उनको दो तीन उपयुक्त कृषि भूमि दिखवाने मैं ले गया था। ये सारी ज़मीने इंदौर से कम से कम तीस किलोमीटर दूर थी और हमारी यात्रा ही शाम 4:30 पर आरम्भ हुई थी।

दो ज़मीने दिखाते दिखाते तो एकदम अंधेरा हो चला था, जैसा आपको पता है ठंड के दिनों में जल्दी शाम हो जाया करती है। तीसरी ज़मीन दिखाई जो उन्हें बेहद पसंद आई। इसके दो कारण थे। पहला: पानी भरपूर था और ज़मीन बहुत ज़्यादा उपजाऊ थी। दूसरा: ज़मीन मालिक एक किसान था जो बेचारा गले गले तक कर्ज़ के जाल में फंसा हुआ था और लगभग दो करोड़ रुपये बाज़ार मूल्य की ज़मीन को तुरंत में औने पौने दामो में बेचने को तैयार था।

तो साहब को ज़मीन पसंद आई । इन कारणों से और मुझसे पेपर वगेरह की औपचारिकताएं कर लेने के लिए कहकर गाड़ी में बैठ गए। उन उद्योगपति की बड़ी ऑडी कार गाँव मे ही खड़ी थी और मेरी गाड़ी थी जिसमे बैठाकर उन्हें तीनो ज़मीने मैंने दिखवाई थी। उनको उनकी गाड़ी तक छोड़ने गाँव तक गया इतने में ही मेरी कार का पिछला पहिया बहुत ज़्यादा नुकीले पत्थरों और उबड़ खाबड़ ज़मीन के कारण पंक्चर हो गया।

यहाँ तक तो ठीक था, मगर उस दिन संयोगवश मैं पर्स ले जाना भी भूल गया था जल्दी जल्दी में। ये मेरी चिंता का विषय बनता जा रहा था। मैं गाड़ी चला रहा था और वो उद्योगपति बगल में बैठे हुए थे। पंक्चर उनके सामने हुआ और पर्स भूल जाने की बात मैंने रास्ते मे ही बता दी थी। लेकिन वो स्वार्थी आदमी अपनी ऑडी गाड़ी तक एकदम दम साधकर ऐसे चुप बैठे रहा जैसे मोम की गुड़िया।

जैसे अब मैं उससे जायदाद का आधा हिस्सा मांगने वाला हूँ। वो उतरे और बिल्कुल निस्पृह भाव के साथ अपनी गाड़ी में जा बैठे, मानो मेरा अब कोई काम ही नहीं। मेरे स्वाभिमान को तांक पर रखकर गया उनके पास और सब स्थिति जो उनके सामने ही घटित हुई थी, दोबारा सुनाई और मात्र पाँच सौ रुपये उनसे उधार मांगे जो मैं घर पँहुचते ही रात में उनके यहाँ लौटने जाता।

लेकिन जो उन्होंने कहा वो तो मैंने सपने में भी नही सोचा था। वो ठहाका लगाते हुए बोले: “यार पर्स वर्स तो मेरे पास भी नहीं है। आज के ज़माने में कौन रखता है पर्स। तुम कल घर आ जाना, अपन गाड़ी को किसी अच्छे मैकेनिक के यहाँ दे देंगे। अभी देर हो रही है यार, मैं चलता हूँ।” और ये बोलते बोलते गाड़ी फ़ुर्र हो गयी वहाँ से।

मतलब करोड़ो की ज़मीन लेने वाला आदमी पर्स ना रखे ये मैं मान सकता था लेकिन इंसानियत का एक पैसा भी नही रखे, ये नही सोचा था। वो गाँव जहाँ मेरी गाड़ी पंक्चर हुई थी, वहाँ बिजली भी इसी साल आयी थी। इंदौर जाने के लिए ये गाँव वाले दो बस बदलते थे, तब जाकर पँहुच पाते थे। पेटीएम और गूगल पे तो सपनो की बातें थी वहाँ।

आप समझ रहे होंगे अब के वो वैसी जगह थी जो वास्तव में कटी हुई थी शहरी जीवन से। एकदम घुप्प अंधेरा और ठंड लगने लगी मुझे। दिनभर की भागदौड़ और मेहनत के कारण भूख इतने ज़ोर की लग आयी थी की सहन के पार थी। मुश्किल मुश्किल दो सौ लोगो की आबादी वाले गाँव मे रेस्टॉरेंट खोजना व्यर्थ था।

ये सब विचार बिजली की तरह घूम रहे थे दिमाग मे, इतने में ही दूर से एक बूढ़ा आदमी साईकल पर आता दिखाई दिया। वो मेरे एकदम पास आकर रुक गया, तब मैं पहचाना की ये तो वही बेचारा कर्ज़े में डूबा किसान है। वो बोला: “बाबूजी म्हाने पतो है तमारी गाड़ी बैठ गई है। फिकर मती करो। यो सगलो गाँव अपनों ही है। तम तो आओ म्हारा घर और रोटी पानी करी लेओ पेला। भूखा होगा नी तम।” ऐसा लगा जैसे कोई मेरा अपना मिल गया है अजनबियों की दुनिया मे।

मैं गया उनके झोपड़ीनुमा घर मे और अंदर थाली लगी हुई थी। बड़ी बड़ी बाजरे की रोटियाँ, आलू बैंगन की सब्ज़ी और गुड़। प्रभु को धन्यवाद देते हुए मैं लगा खाने। *भूख में ये भी भूल गया की मेरे मेज़बानों ने खाया है या नहीं।* शायद आधे से अधिक भोजन मैंने कर लिया था उन चार सदस्यों के परिवार का

इतने में ही उन किसान का लड़का 10–12 किलोमीटर दूर से कही कोई मैकेनिक को बाइक पर बैठा लाया और यहाँ में भोजन कर रहा था और वहाँ वो पंक्चर बना रहा था। वो किसान भाई बड़े प्रेम से मनुहार करते हुए मुझे ज़बरदस्ती खिला रहे थे और मैं उनके प्रेम के आगे नतमस्तक था।

भरोसा जानिए, इतना स्वादिष्ट भोजन जीवन मे शायद ही मैंने कहीं पाया होगा। तो सब कुछ हो जाने के बाद किसान ने उस मैकेनिक को मेरे बिना बताए पैसे देकर विदा कर दिया जो मेरे दिल को अंदर तक छू गया। आँखों मे कही गीलापन सा था मेरी।

इस व्यवहार की प्रशंसा शब्दो मे करने लगूँ तो बेमानी होगा! एक तरफ वो नकली सेठ साहब जो किसी मजबूर का खून तो बड़े प्रेम से चूस लेंगे लेकिन पास में से ढेला किसी के लिए नही निकालेंगे। और एक तरफ ये असली सेठ किसान साहब जो खुद भूखे रहेंगे लेकिन अपनी थाली दूसरों के आगे कर देंगे। अमीर लोग दूसरों का निवाला छीन कर खाने में अधिक विश्वास रखते है, तो इसीलिए असंतुष्टि और कभी ना बुझने वाली धन की आग के कारण सदा दुखी रहते है।

गरीब लोग अपने मुँह का निवाला दूसरों को खिला कर खुश होते है, इसीलिए सदा आनंद और संतुष्टि में रहते है। मेरी बुद्धि के अनुसार तो यहीं कारण होता होगा शायद!

Source: Youtube

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